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स꣡ वह्नि꣢꣯र꣣प्सु꣢ दु꣣ष्ट꣡रो꣢ मृ꣣ज्य꣡मा꣢नो꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः । सो꣡म꣢श्च꣣मू꣡षु꣢ सीदति ॥९७३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स वह्निरप्सु दुष्टरो मृज्यमानो गभस्त्योः । सोमश्चमूषु सीदति ॥९७३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । व꣡ह्निः꣢꣯ । अ꣣प्सु꣢ । दु꣣ष्ट꣡रः꣢ । दुः꣣ । त꣡रः꣢꣯ । मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः । सो꣡मः꣢꣯ । च꣣मू꣡षु꣢ । सी꣣दति ॥९७३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 973 | (कौथोम) 3 » 2 » 4 » 6 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 1 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वह्निः) जगत् के भार को ढोनेवाला, (दुष्टरः) दुस्तर, (मृज्यमानः) श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभावों से अलंकृत होनेवाला (स सोमः) वह जगत्पति परमेश्वर (अप्सु) नद, नदी, समुद्र, बादल आदि के जलों में (गभस्त्योः) सौम्य एवं तैजस रूप वाली चन्द्र-सूर्य की किरणों में, (चमूषु) द्यावापृथिवी के मध्य विद्यमान विभिन्न लोकों में (सीदति) बैठा हुआ है ॥६॥

भावार्थभाषाः -

अगणित ग्रह, उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र आदियों से युक्त इस अति विस्तीर्ण विश्वब्रह्माण्ड में कोई कण भर भी स्थान नहीं है, जहाँ परमेश्वर विद्यमान न हो ॥६॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मनः सर्वव्यापकत्वं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वह्निः) जगद्भारस्य वोढा, (दुष्टरः) दुरतिक्रमः, (मृज्यमानः) सद्गुणकर्मस्वभावैः अलङ्क्रियमाणः (स सोमः) असौ जगत्पतिः परमेश्वरः (अप्सु) नदनदीसमुद्रपर्जन्यादिवर्तिषु उदकेषु, (गभस्त्योः)सौम्यतैजसरूपयोः चन्द्रसूर्यकिरणयोः। [गभस्तिरिति रश्मिनामसु पठितम्। निघं० २।४।] (चमूषु) द्यावापृथिव्योरन्तराले विद्यमानेषु विभिन्नेषु लोकेषु चापि [चम्वौ इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०।] (सीदति) निषण्णोऽस्ति ॥६॥

भावार्थभाषाः -

अगणितग्रहोपग्रहसूर्यनक्षत्रादियुते सुविस्तीर्णे विश्वब्रह्माण्डेऽस्मिन् कणपरिमितमपि स्थानं न विद्यते यत्र परमेश्वरो नास्ति ॥६॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२०।६।